मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

हिंदी में अँग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस हद तक ?



वैश्विक ई संगोष्ठी- 2
हिंदी में अँग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस हद तक ?

पिछले दिनों माखनलाल चतुर्वेदी  पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति प्रो. ब्रजकिशोर कुठियालाजी द्वारा  भारत सरकार की माननीय विदेशमंत्री  श्रीमती सुष्मा स्वराज तथा अनेक वरिष्ठ पत्रकारों व विद्वानों की उपस्थिति में देश के कई प्रमुख समाचारपत्रों में अंग्रेजी से आयातित शब्दों के अध्ययन के आधार पर  यह जानने की कोशिश की गई कि किस प्रकार  मीडिया में के शब्द किस-किस प्रकार आवश्यक, अनावश्यक या जबरन हिंदी में प्रवेश कर रहे हैं या करवाए जा रहे हैं।इस पहल को आगे बढ़ाते हुए 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' द्वारा  इस विषय पर वैश्विक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। प्रस्तुत हैं कुछ संक्षिप्त विचार ।

डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य', वैश्विक हिंदी सम्मेलन ।
हिंदी या भारतीय भाषाओं से आए सभी शब्दों व प्रयोगों निषेध ही करना है ऐसा नहीं है। आवश्यकतानुसार विवेकसंगत रूप से कुछ चीजें लेना हमारी भाषाओं के हित में होगा । लेकिन समस्या यह है कि अंग्रेजी अपने चौतरफा हमलों से भारतीय भाषाओं को लीलती जा रही है और भाषाओं के सेनापति व सिपाही भाषा-विलास और हास - परिहास से बाहर आने को तैयार ही नहीं हैं। अंग्रेजी के आक्रमण और साम्राज्यवादिता के चलते भाषाओं को लीलने की समस्या अकेले हिंदी की नहीं है बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की भी कमोबेश यही स्थिति है। यहाँ एक कटु सत्य की ओर भी ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है कि  भारत में भारतीय भाषाओं के लिए स्थापित सरकारी संस्थाओं  व गैर सरकारी  हजारों संस्थाएँ हैं। केवल हिंदी की संस्थाओं का आंकड़ा ही हजारों में होगा जो साल भर भाषा और साहित्य की कथित सेवा, विकास आदि के नाम पर शॉल- श्री फल. सम्मान, पुरस्कार, अभिनंदन का आयोजन करते रहते हैं । इनमें लाखों पात्र- अपात्र उपकृत होते हैं ।

साहित्यकारों कवियों, हिंदी सेवियों और  हिंदी प्रमियों की संख्या तो और बड़ी है। दुनिया में इतनी बड़ी संख्या किसी अन्य भाषा के चिंतकों और सेवियों की नही होगी । इन कथित हिंदी सेवियों, हिंदी संस्था-चालकों, पुरस्कार-वितरकों और सम्मान व पुरस्कार बटोरुओं में से कितनों ने भाषा की इस दुर्गति को रोकने के लिए कलम या जुबान चलाई । ले दे कर मुश्किल से उंगलियों पर गिने जाने वाले कुछ नामों को छोड़ कर इस बारे में सन्नाटा पसरा है। अखबार मालिक, प्रबंधन व संपादक आदि सरेआम प्रतिदिन मिलकर अपनी ही  भाषा का चीरहरण करते आ रहे हैं और लाखों चौकीदार लाभ-लोभ या उदासीनता -विवशता की भांग खा कर सो रहे हैं।
जिस देश में भाषा साहित्यकार- लेखक और भाषा-सेवी तक अपनी भाषा की दुर्गति के प्रति उदासीन हों वहाँ सुघार की गुंजायश बचती ही कहाँ है।  ऐसे में माखनलाल चतुर्वेदी  पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा वैज्ञानिक रूप से अध्ययन के माध्यम से  उच्च स्तर पर आयोजित संगोष्ठी सराहनीय तो है लेकिन भाषा का चीरहरण करनेवालों को रोकने में कितनी या किस हद तक कारगर होगी, यह एक बड़ा प्रश्न है। 
मेरा मानना है कि यदि हमारी भाषा अकादमियाँ , भाषा व साहित्य की लाखों संस्थाएँ, लाखों भाषा-सेवी, साहित्यकार अपनी भाषा की दुर्दशा सुधारने के लिए मात्र खड़े हो जाएँ तो करोड़ों भाषा-प्रेमी  भी स्वत: साथ आ जाएँगे । तब दशा व दिशा बदलना कठिन न होगा। पर लाभ-लोभ, विवशता या उदासीनता की बेडियों  में कैद  हिंदी-प्रमियों में कहीं कोई जागरूकता का उफान आएगा लगता नहीं । राहुलदेव जी , डॉ वेदप्रताप वैदिक जी जैसे भाषा -प्रेमी वरिष्ठ साहित्यकारों से कुछ उम्मीद अवश्य है। हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर गठित भारतीय -भाषा मंच भी इस दिशा में सार्थक प्रयास करता दिख रहा है। नागरी लिपि परिषद जैसी कुछ संस्थाएँ, कई संस्थान, बालेंदू शर्मा दाधीच, डॉ. औम विकास जैसे भाषा-प्रौद्योगिकीविद्  और कुछ हिंदी सेवी आदि भी हैं।
इसमें विदेशी पूंजी की भूमिका की बात और अन्य आर्थिक दबावों की भी बात उठती रही है । संविधान के अनुच्छेद - 351 में संविधान ने भी संघ को इसके लिए जो दायित्व सौंपे हैं उनके अंतर्गत इस दिशा में विधिक प्रावधान किए जा सकते हैं।
डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य', वैश्विक हिंदी सम्मेलन ।
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आशा मोर ,टिृनिडाड और टोबेगो
आदरणीय आदित्य जी , 
सादर नमस्कार , 
आपका प्रयास अतुलनीय है। 
आदरणीय स्नेह ठाकुर जी का विचार अत्यंत ही सुलझा हुआ और अच्छे सुझावों से युक्त है । में उनके इस पत्र से पूरी तरह सहमत हूँ । मैं तो बस एक छोटी सी , साधारण सी इकाई हूँ , लेकिन किसी भी विचार की पुष्टि के लिये बहुमत अनिवार्य होता है और प्रत्येक पानी की बूँद का अपना महत्व होता है । इसलिये मैं तो बस उनके विचार की सम्मति में अपना वोट डालने का कार्य कर रही हूँ।
मैं अपनी हिन्दी भाषा पर सदैव गर्व करती हूँ और सभी हिन्दी प्रेमियों से स्नेह रखती हूँ । 
सादर, 
आशा मोर ,टिृनिडाड और टोबेगो 
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मंजु रानी सिंह
हिंदी में अंग्रेजी शब्दों की स्वीकार्यता कहीं-कहीं यदि जरुरी लगे तो देवनागरी लिपि में लिखा जा सकता है,बल्कि इसका तो प्रचलन भी है,पर देवनागरी लिपि को समाप्त करने के बिल्कुल खिलाफ हूँ मैं। ऐसा इसलिए कि हिंदी के अनेक शब्द मर जायेंगे।भाषा के सन्दर्भ में सबसे महतेपूर्ण बात यह है कि कर्म मरता है तो शब्द मरता है,इसलिए जो कर्म जीवित हैं और उसके लिए शब्द भी जीवित हैं उन्हें अंग्रेजी के फैशन में मरने देना सांस्कृतिक अपराध होगा।
अभी-अभी मैं 'कोष्ठ' शब्द भूल जा रही थी और ब्रैकेट शब्द का प्रयोग करने जा रही थी जबकि मैंने बारहवीं कक्षा तक हिंदी में तथा देवनागरी लिपि में विज्ञान(साइंस) की पढ़ाई की है,तब बिहार ,उत्तरप्रदेश,मध्यप्रदेश आदि हिंदी भाषा -भाषी प्रदेशों में विज्ञान की किताबें हिंदी और देवनागरी में प्रचलित थीं।अब उसके खरीदार ही नहीं रहे तो मिले ही क्यों?पर इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि हिंदी में विज्ञान की पढाई संभव है, और भी बहुत तर्क हो सकते हैं,पर हमारी अगली पीढ़ी को कैसे  इस भाषिक संस्कृति की प्रतिबद्धता से कैसे जोड़ा जाये?
आप ऐसी चिंताएं कर रहे हैं यही एक सकारात्मक तथ्य है,शायद।
मंजु रानी सिंह

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योगेंद्र जोशी
यह सब इसलिए है क्योंकि भारतीयों में स्वाभिमान का अभाव है चाहे जो भी क्षेत्र आप ले लें। चाहे भाषाई स्वाभिमान हो या सांस्कृतिक स्वाभिमान या पारंपरिक जीवन-शैली की बात वे उन्हें त्यागते जा रहे हैं और जो कुछ पाश्चात्य है उसको अपनाते जा रहे हों। संभव है कि अधिसंख्य भारतीय अभी भी कुछ स्वाभिमान रखते हों, किंतु जिनके हाथ में देश की व्यवस्था है - चाहे अर्थ-व्यवस्था हो, समाचार-माध्यम हो, राजनीति और शासकीय व्यवस्था हो, शिक्षा हो, वे सब अंगरेजी के वर्चस्व को स्वीकार करके ही मैदान में उतरे हैं। उनमें न तो हिंदी के प्रति सम्मान है और न ही इतनी काबिलियत कि बिना अंगरेजी के शब्दों के वे हिन्दी में बात कर सकें। कारण स्पष्ट है कि किसी भी क्षेत्र में आपका प्रवेश अंगरेजी में संपन्न चुनाव-विधि पर आधारित रहता है। हिन्दी समाचार पत्र अंगरेजी अनुवाद पर आधारित हैं उनके अनुवादक संतोषप्रद हिंदी-ज्ञान रखते ही नहीं। उनका आगे बढ़ने की सीड़ी तो अंगरेजी ही रहती है। इसलिए हिन्दी को लेकर रोना कोई माने नहीं रखता। हिन्दी को बिगाड़ने वाले हिन्दी-भाषी ही हैं। जब आप उसी टहनी को काट रहे हों जिस पर बैठे हों तो परिणाम क्या होगा? 

जिस समाज के लोग अपने देश को "भारत" कहने के बजाय "इंडिया" कहना पसंद करते हों, हर क्षेत्र में अंगरेज और अग्रेजियत पर उतर आये हों, मां-बाप को डैड-मॉम कहना बेहतर समझते हों, पारंपरिक संबोधनों को छोड़ अंगरेजी सम्बोधनों यथा हज़्बैंड, वाइफ़, ब्रदर-इन-लॉ, सिस्टर-इन-लॉ आदि कहना शुरू कर चुके हों, अंगरेजी शैली में जन्मदिन-केक काटते हों और मोमबत्तियां बुझाते हों, अभिवादन में गुडमॉर्निंग-गुडईवनिंग कहते हों, अंगरेजी-अमेरिकी त्योहार मनाने का उत्साह पालते हों, उस समाज में आप हिंदी-अंगरेजी की खिचड़ी न परोसें यह कैसे उम्मीद करते हैं? सबसे बड़ी बात यह है कि हमारा देश वाकई स्वतंत्र है जहां लोगों को अपनी मर्जी का कुछ भी करने  की पूरी छूट है; वे क्या खायें, क्या पहनें, कैसे बोलें, आदि पर कोई रोक-टोक तो यहां एक प्रकार का अपराध है। लोगों को अपनी सुविधानुसार भाषाओं को विकृत करने और उनकी लिपियों को बदलने की पूरी छूट है। है संविधान में इसके विरुद्ध कोई आदेश? नहीं न? तो शांत होकर देखते रहिए: आगे होता है क्या।
योगेंद्र जोशी
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नरेंद्र सहारकर

जहाँ तक मुझे याद है कि माननीया विदेश मत्री व विदूषी महोदया ने उस समय कहा था कि "भाषा का कोमार्य भंग हो चुका है" |  किंतु मैंने तो अनेकों बार लिखा है कि हिंदी और हमारी प्रादेशिक भाषाओं पर हर समय जानबूझकर बलात्कार हो रहा है, करने वाले , देखने वाले तथा न्यायाधीश भी हम ही हैं किंतु बलात्कारी खुले आम घुमक्कड बन फ़िर रहा है …………।फ़िर  …। बलात्कार करने की तैयारी कर रहा है ………………।

नरेंद्र सहारकर

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दिव्या
Waah, Sneh ji, aisa saargarbhit lekh maine pehli baar padha hai, atma tript ho gayi, bahut vahut badhai. Asha karti hoon ki apke us lekh ko sammelan mein padh kar sunaya jayega taaki aapke sundar aur sateek vichaar adhik se adhik janta tak pahunchein....
Sasneh, Divya
( आशा है दिव्याजी जल्द ही देवनागरी में मोबाइल/कंप्यूटर पर टाइपिंग सीख लेंगी।)


 वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
वेबसाइट- वैश्विकहिंदी.भारत /  www.vhindi.in
-- 
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.com


प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
email: murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी

हैदराबाद


गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

ऋषभदेव शर्माजी सम्मानित

ऋषभदेव शर्माजी सम्मानित 







प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
email: murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद







वैश्विक ई संगोष्ठी


वैश्विक ई संगोष्ठी

पिछले दिनों माखनलाल चतुर्वेदी  पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भारत सरकार की माननीय विदेशमंत्री  श्रीमती सुष्मा स्वराज तथा अनेक वरिष्ठ पत्रकारों व विद्वानों की उपस्थिति में देश के कई प्रमुख समाचारपत्रों में अंग्रेजी से आयातित शब्दों के अध्ययन के आधार पर  यह जानने की कोशिश की गई कि किस प्रकार  मीडिया में के शब्द किस-किस प्रकार आवश्यक, अनावश्यक या जबरन हिंदी में प्रवेश कर रहे हैं या करवाए जा रहे हैं।
मैं समझता हूं कि किसी भाषा के समाचार पत्रों और चैनलों आदि का यह नैतिक दायित्व  होता है कि वे अपनी भाषा को संपन्न करें और स्थापित शब्दों के अतिरिक्त नए शब्द व भाषिक प्रयोगों को भी प्रचलन में लाएँ । जहाँ आवश्यक हो वहाँ अन्य भाषाओं के शब्दों को भी स्वीकार करें ।  लेकिन पिछले कुछ समय से ठीक इसके विपरीत अपनी शक्ति के मद में चूर, प्रबंधन के हाथों मजबूर हो कर या कथित व्यावसायिक आवश्यकताओं के चलते हिंदी मीडिया द्वारा बड़े पैमाने पर चलते-फिरते, जीते-जागते हिंदी शब्दों को हटा कर जबरन अंग्रेजी शब्दों को ठूंसने की जो होड़ मची उसने हिंदी की शब्द-संपदा  और वाक्य संरचना आदि को भारी नुकसान पहुंचाया है और यह प्रक्रिया जोरों पर है । अनेक भाषा रक्षक- भाषा भक्षक से खड़े दिखाई देते हैं। पाठक व श्रोता निरीह प्राणी की तरह सब देख - झेल रहा है । यही नहीं हिंदी के कथित कुछ समाचारपत्रों ने तो और एक कदम आगे बढ़ कर हिंदी शब्दों व संक्षिप्तियों को धड़ल्ले से रोमन लिपि में लिखना प्रारंभ कर दिया है। इस विषय पर  दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी आवाज उठी थी . अब इस विषय पर माखनलाल चतुर्वेदी  पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा विचार-विमर्श की  गई है। इस पहल को आगे बढ़ाते हुए 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' द्वारा  इस विषय पर वैश्विक संगोष्ठी का आयोजन किया गया है । विद्वजनों के संक्षिप्त विचार सादर आमंत्रित हैं।
डॉ.एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'
निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन

हिंदी में अँग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस हद तक ?
                                                                                            - स्नेह ठाकुर
प्रिय आदित्य जी,
       "हिंदी में अँग्रेजी और रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस सीमा तक?" - इस एक ही प्रश्न में समाहित द्विप्रश्नीय प्रश्न के दूसरे भाग - "हिन्दी में रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस सीमा तक" - का उत्तर पहले देना चाहूँगी क्योंकि मेरी मान्यता है कि यदि लिपि ही नहीं रह जाएगी तो भाषा कैसे रह पाएगी. यदि रोमन लिपि प्रचलित हो प्रबलतम हो गई तो क्या हिन्दी की देवनागरी लिपि का शनै:-शनै: लोप अवश्यंभावी नहीं हो जाएगा? लिपि गई तो अपने साथ-साथ साहित्य व संस्कृति को नहीं ले जाएगी? यदि हिन्दी को जीवित रखना है, हिन्दी के अस्तित्व को बनाये रखना है तो रोमन लिपि की स्वीकार्यता का प्रश्न ही कहाँ उठता है? और जब हिन्दी को जीवित रखने हेतु रोमन लिपि की स्वीकार्यता अस्वीकार है तो फिर उसकी सीमा का भी प्रश्न ही कहाँ उठता है?
       आज जब कि देवनागरी लिपि की महत्ता सर्वव्यापी, विश्वव्यापी है, तो भारत उस हिन्दी के लिए जिसे देवनागरी लिपि में लिखा जा रहा है, 'हिंदी में रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस सीमा तक ?' के प्रश्न पर पहली बात तो विचार ही क्यों कर रहा है, यही आश्चर्य की बात है.
       हिन्दी विश्व-भाषा बनने के पथ पर अग्रसर है, इसमें कोई संदेह नहीं है. आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन न्यूयॉर्क में, जिसमें कैनेडा से विशिष्ट अतिथि होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था, यू.एन. के मुख्य सभागार में, उद्घाटन सत्र में, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव श्री वान की मून के अधरों से निकले हिन्दी के कुछ वाक्यों ने तथा सभी भारतीय एवं प्रवासी भारतीयों के कंठों से निकली हिन्दी ने उस महत्वपूर्ण स्थान में अपनी उपस्थिति का डंका बजा दिया था. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के उद्घोष की शंख-ध्वनि गूँज उठी थी. 
       हिन्दी के भूमंडलीकरण का साक्षी कैनेडा में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का तालियों की गड़गड़ाहट में दिया गया वक्तव्य है. अमेरिका में भी मेडीसन स्क्वैयर और यू.एन. हेतु हिन्दी में दिए गए उनके वक्तव्य पर हुईं तालियों की अनुगूँज हिन्दी के भूमंडलीकरण का प्रमाण है. अन्य देश व स्थान भी जहाँ-जहाँ भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने हिन्दी की स्वर-लहरी लहराई है,हिन्दी के प्रति प्रेम के साक्ष्य हैं.
            "१०वें विश्व हिन्दी सम्मेलन" की चर्चाएँ भाषा की दृष्टि से सारगर्भित रहीं. यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में कैनेडा से विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था और १०वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में "विश्व हिन्दी सम्मान" से सम्मानित किया गया. तात्पर्य यह कि मैं दोनों सम्मेलनों की विषय-वस्तु की साक्षी रही.
        हिन्दी के इस भूमंडलीकरण के दौर में रोमन लिपि द्वारा उसके रास्ते में आनेवाली उच्चारण सम्बन्धी समस्या पर विचार करना पड़ेगा, विशेषरूप से विदेशों में हिन्दी के परिपेक्ष्य में जहाँ हिन्दी का ज्ञान सीमित है. वर्तनी भाषा का अनुशासित आवर्तन है. हिन्दी के शब्दों की लिपिबद्धता जब रोमन लिपि में की जाएगी तो इस अनुशासन का पालन संभव न होगा, सब अपने-अपने ढंग से शब्दों को लिखेंगे. भाषा लोक-व्यवहार के स्तर पर बोलचाल की हो या साधारण या विशिष्ट लेखन की, भाषा के एक मानक स्वरूप की आवश्यकता अवश्य होती है. उच्चारण हमें कभी-कभी हास्यास्पद, अजीबोगरीब स्थिति में डाल देता है. बंगाली भाषी, उत्तर प्रदेश निवासी के घर भजन संध्या का आनंद उठा, उस आनंद की पुनरावृत्ति अपने घर करवाने की सोच विनम्र हो पड़ोसी को अपनी हिन्दी में न्योता दे आता है कि आज हमारे घर भोजन है परिवार सहित आइएगा. पड़ोसी भोजन करने पहुँचते हैं और वस्तुत: भूखे पेट न होंहि भजन गोपाला की स्थिति में पहुँच, भूख से पीड़ित आँतड़ियों को दबाते हुए पेट पकड़ कर बैठ जाते हैं. बंगाली मोशाय "भजन" को "भोजन" उच्चारित कर निमंत्रित कर रहे थे और उत्तर प्रदेशी महाशय अपनी समझ में उनके यहाँ "भजन" करने नहीं "भोजन" करने गए थे.
       कुछ महीने पहले एक पंजाबी भाषी महिला ने मेरा हाथ बड़े प्यार से पकड़कर कहा "मुझे आपका उपन्यास पढ़ने का बड़ा शोक है." मैं अचम्भित हो उन्हें देखती ही रह गई क्योंकि उनके द्वारा बहुत ही स्नेहपूर्वक पकड़ा हुआ मेरा हाथ मुझे किसी भी स्थिति में उनकी शोक की अनुभूति से अभिसिंचित नहीं कर रहा था कि उन्होंने फिर कहा, "सनेह जी, मैंने आपका उपन्यास 'कैकेयी चेतना-शिखा'पढ़ा. मुझे उसे पढ़ने का शोक है'. लेखक को पाठक की हर प्रतिक्रिया शिरोधार्य होनी चाहिए. जहाँ पाठक का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है,उसकी अपनी ग्रहणशीलता है, पाठक सदैव लेखक की भावना से ही संचालित हो, अनुप्राणित हो यह आवश्यक नहीं है; वहीं यद्यपि किसाहित्यकार की सबसे बड़ी विशेषता संप्रेषणीयता ही है, तथापि साहित्यकार की हर कृति इतनी सौभाग्यशाली नहीं भी हो सकती है कि वहअपने उसी रूप में पाठक के मन-मस्तिष्क पर छा जाए जिस भावना को लेकर साहित्यकार ने उसे रचा है. यह सब कुछ सैद्धांतिक रूप सेजानते-समझते हुए भी मानव स्वभावानुसार कुछ आहत हो बिन सोचे मेरे मुँह से अनायास निकल पड़ा कि माफ़ कीजिएगा "कैकेयी चेतना-शिखा" उपन्यास का प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही द्वितीय संस्करण निकलने से बहुत पहले ही उसे राष्ट्रपति भवन पुस्तकालय में रखा गया है, साहित्य अकादमी म. प्र. द्वारा अखिल भारतीय 'वीरसिंह देव' पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, क्षमा चाहती हूँ कि आपको उसे पढ़ने पर शोक हुआ....' उन्होंने मेरी पूरी बात सुने बिना बीच में ही काटते हुए बड़े प्यार से मेरा हाथ थपथपाते हुए कहा,'अजी बहनजी! मुझे पता है, मैं कह तो रही हूँ कि मुझे वह पढ़कर बड़ा अच्छा लगा. मुझे आपके उपन्यास पढ़ने का बहुत ही शोक है. मैं तो आपका नया उपन्यास "लोक-नायक राम" भी बड़े शोक से पढ़ रही हूँ.' अब उनके शोक - शौक़ को मैं समझी.
       जब 'भजन' और 'भोजन', 'शौक़' और 'शोक' अपने ही देश के व्यक्तियों का उच्चारण गुदगुदाती गलतफ़हमी पैदा कर सकते हैं तो रोमन लिपि का अपनी-अपनी डफ़ली, अपना-अपना राग बड़ी समस्या पैदा कर सकता है, विषेशरूप से विदेशों में जहाँ मूल भाषा हिन्दी नहीं है. बोलचाल में आमने-सामने के संवाद की स्थिति में स्पष्टीकरण सम्भव है पर रोमन लिपि में शब्दों की एकरूपता का अभाव भ्रम उत्पन्न कर सकता है जिससे अर्थभेद हो सकता है.
       शुद्ध भाषा लिखने-पढ़ने के लिए शुद्ध उच्चारण बहुत महत्वपूर्ण है. हिन्दी के संदर्भ में तो यह कथन और भी सत्य है, क्योंकि हिन्दी ध्वन्यात्मक भाषा है. हिन्दी जिस प्रकार बोली जाती है, प्राय: उसी प्रकार लिखी भी जाती है. इसीलिए हिन्दी लिखने-पढ़ने वालों के लिए इसका शुद्ध उच्चारण आवश्यक है. जो शुद्ध उच्चारण करेगा, वह शुद्ध लिखेगा भी.
       हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, और जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि यह ध्वन्यात्मक लिपि है. देवनागरी की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है, जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है जबकि दूसरी भाषाओं में यह बात नहीं है. अत: विषेशरूप से आज जब हिन्दी की वैश्विक पहचान बन रही है, ऐसी स्थिति में अन्य भाषा-भाषियों के लिए देवनागरी लिपि में हिन्दी सीखना सहज होगा.
       इस दिशा में एक और बात विचारणीय है, ध्यान देने योग्य है कि जब हिन्दी की देवनागरी लिपि संसार की सर्वाधिक सर्वोत्तमवैज्ञानिक लिपि के रूप में हमें परम्परा से प्राप्त है तो फिर हम क्यों न इसका सदुपयोग करें. कम्प्यूटर के इस युग में सार्वभौम लिपि के रूप में खरा उतर सकने की सामर्थ्य देवनागरी लिपि में ही है. सबसे अधिक शुद्धता के साथ सभी भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने की क्षमता इस लिपि में है. इस अक्षरात्मक लिपि की ध्वन्यात्मक विशेषता इसमें शब्दों को उनके उच्चारणों के ही अनुरूप लिपिबद्ध किए जा सकने की सामर्थ्य पैदा करती है तो हम क्यों ऐसी शिखरोन्मुख सर्वोच्च श्रेणी की लिपि को त्याग कर हिन्दी के लिए रोमन लिपि का प्रयोग करें? हमें वैज्ञानिक धरातल पर देवनागरी लिपि को आगे बढ़ाना है न कि रोमन लिपि को आगे लाकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारनी है!
       एक बार रोमन लिपि चल गई, नई पीढ़ी में प्रबलतम प्रचलित हो गई, जैसी कि आशंका उठाई जा रही हैतो हर कोई भाषा को तोड़ेगा, मरोड़ेगा, उसका उच्चारण अपनी सुविधानुसार कर उसके रूप के साथ खिलवाड़ कर अर्थ का अनर्थ कर देगा. अत: भाषा की शुद्धता हेतु हिन्दी की देवनागरी लिपि की सुरक्षा अत्यावश्यक है. हमें हिन्दी की जड़ सींचनी है न कि कुछ लोगों द्वारा रोमन लिपि कीतथाकथित सुगमता की बातों में आकर हिन्दी के पत्तों को सींच, केवल उसकी ऊपरी सतह पर थोड़ा-सा छिड़काव कर उसकी जड़ को खोखला करना है.
       अब रही बात, "हिंदी में अँग्रेजी की स्वीकार्यता किस सीमा तक ?" तो यह कहना चाहूँगी कि भाषा तो बहता पानी है जो न केवल अपने कगारों को समृद्ध करता है वरन् उससे स्वयं भी समृद्ध होता है. हिन्दी में विदेशी भाषा के शब्दों के समावेश के पक्ष में हूँ बशर्ते वो शब्द हमारी भाषा को समृद्ध करें. अपनी भाषा हिन्दी के शब्दों का लोप करके दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करने के पक्ष में नहीं हूँ. पर जो शब्द हमारी हिन्दी भाषा में नहीं हैया ऐसे उन वर्तमान शब्दों के दूसरी भाषा के विकल्प शब्द जो तथ्य की अर्थपूर्ण पूर्णरूपेण अभिव्यक्ति ज़्यादा अच्छी तरह करने की सामर्थ्य रखते हैं, ऐसे सक्षम शब्दों का समावेश हानिकारक न होगा. साथ ही जो शब्द हमारी भाषा में नहीं हैं उनको दूसरी भाषा से लेकर हिन्दी को समृद्ध करने के पक्ष में भी हूँ. वो शब्द जो हिन्दी में नहीं थे और जिनकी रचना की गई हैउदाहरणार्थ रेल या ट्रेन हेतु "लौहपथगामिनी", ऐसी स्थिति में प्रचलित छोटे सहज-सुगम शब्द रेल या ट्रेन का समावेश अनुचित नहीं. भाषा जीवंत है. समयानुकूल सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ उसमें नए शब्दों का जुड़ना एक अनिवार्यता है. साथ ही आज की अनिवार्यता है हिन्दी का गर्व के साथ प्रयोग. हिन्दी में अँग्रेजी या दूसरी भाषा के शब्दों का समावेश करें या नहीं इससे भी ज़्यादा न केवल यह बात महत्वपूर्ण है वरन् यह आज की अनिवार्यता भी है कि हम हिन्दी का गर्व और गौरव के साथ प्रयोग करें. यदि हमें अपनी भाषा हिन्दी को जीवित रखना है तो उसका निरंतर प्रयोग अति आवश्यक है.
       मैं साथ ही यह भी कहना चाहूँगी कि हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं हिन्दी रक्षा न केवल भारतवासियों का कर्तव्य व दायित्व है वरन् यह प्रवासी भारतीयों का भी कर्तव्य व दायित्व है.  भाषा संस्कृति की वाहिनी है. भारतीयताभारतीय संस्कृति को जीवित रखना है तो हिन्दी को जीवित रखना आवश्यक है. हिन्दी का लोप अँग्रेजी के ये-पुराने आवश्यक शब्दों के समावेश से नहीं वरन् हिन्दी के प्रति हमारीहीन मानसिकता से होगा. हिन्दी का लोप हिन्दी के प्रति हमारी हीन भावना से होगा.
       मुझे इस बात की चिंता है कि हिन्दी कैसे अनवरत प्रगति के पथ पर चलती रहे, उसका प्रचार-प्रसार दिन-दूना रात-चौगुना कैसे हो, उसका मार्ग अवरुद्ध न हो. अनेक भाषाओं का ज्ञान व्यावहारिक रूप से एवं मस्तिष्क के लिए भी अत्यंत हितकारी है पर अपनी भाषा से नाता तोड़कर नहीं. अपनी भाषा सर्वोपरि होनी चाहिए. अत: शब्दों के समावेश के प्रश्न से ज़्यादा अहम है कि हम हिन्दी के प्रति हीन मानसिकता में परिवर्तन लाएँ. हमारी हिन्दी पर गर्व करने की भावना हिन्दी के उत्थान हेतु अधिक लाभकारी सिद्ध होगी. जब हम देश-विदेश में सर ऊँचा कर गर्व से हिन्दी बोलेंगे तो भाषा अपनी पूर्णता और समृद्धता में स्वयं ही इस प्रकार प्रस्फुटित होगी कि उसके लोप होने का प्रश्न ही न उठेगा.
       अँग्रेजी के कई शब्द जन मानस में इतने रच-बस गए हैं, प्रचलित हो गए हैं कि कदाचित उनको भाषा से निकालना असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल अवश्य हो जाएगा. यह हम पर निर्भर करता है कि हम किन शब्दों का समावेश कर रहे हैं. प्रश्न यह है कि जिन अँग्रेजी शब्दों के हिन्दी या हिंदुस्तानी शब्द हैं, जो क्लिष्ट भी नहीं हैं, और प्रचलित भी हैं या आसानी से उपयोग में लाए जा सकते हैं,क्या उनके लिए भी अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग स्वीकार होगा? या होना चाहिए? यदि हाँ, तो ऐसा क्यों? यह एक बहुत ही अहम प्रश्न है किऐसे शब्दों के लिए हम अपनी भाषा के शब्दों के प्रयोग के पक्ष में क्यों नहीं हैं? हमें अपनी भाषा को समृद्ध करना है अत: जिन शब्दों का हमारे पास समाधान नहीं है उन्हें अँग्रेजी या किसी विदेशी भाषा से लेना उचित प्रतीत होता है पर जो शब्द हमारे पास हैं अपने उन स्वदेशी शब्दों का प्रयोग अपनी भाषा से निकाल कर उनकी जगह विदेशी अँग्रेजी भाषा के शब्दों को ढूँसना क्या उचित है? क्या यह अनावश्यक नहीं है? इसका औचित्य क्या है? इसका उत्तर हर हिन्दी भाषी, भारतीय व प्रवासी भारतीय को अपनी अंतरात्मा से पूछना होगा.
       साथ ही यदि हम अँग्रेजी या किसी भी विदेशी भाषा का शब्द हिन्दी में अपना रहे हैं तो उसे विकृत न कर, उसके मूल रूप मेंउसे उसी तरह अपनाना अधिक तर्कसंगत लगता है. उदाहरणार्थ मुझे बताया गया है कि अँग्रेजी शब्द कन्फ्यूज़, कन्फ्यूज़ का हिंदीकरण कनफूज, कनफूजन है. पहली बात तो ऐसे जो शब्द हमारे पास हिन्दी में हैं उसे अँग्रेजी से लेने का औचित्य ही नहीं बनता. हिन्दी अर्थ-सम्पदा में बहुलता से पाये गए ऐसे शब्दों के हिंदीकरण की आवश्यकता ही क्यों है! हम ऐसे शब्दों को लें हीं क्यों जो हिन्दी-सम्पदा में सहजता, सुगमता से प्राप्त हैं. अँग्रेजी के उन शब्दों को जिन्हें किसी कारणवश हम ले रहे हैं तो उन्हें उसी रूप में ही क्यों न लिया जाए?उन्हें अपभ्रंश करके क्यों अपनाया जाए? क्या अपभ्रंश करने से वह शब्द हमारा हो जाएगा? क्या उसका उद्गम स्थान अँग्रेजी नहीं रहेगा?अन्य भाषाएँ भी तो दूसरी भाषा के शब्दों को जस-का-तस ही लेती हैं. हाँ! यह बात अलग है कि हम जबर्दस्ती किसी शब्द का हिंदीकरण न करके स्वाभिमानपूर्वक अपनी उपयोगी शब्दावली की रचना स्वयं करें.
       जहाँ अनायास किसी शब्द का उच्चारण समस्या पैदा कर सकता है, अर्थ का अनर्थ कर सकता है वहाँ सायास किसी शब्द को विकृत करके स्वीकारना क्या उचित होगा?
       हिन्दी आम जनता के बीच सम्मान पाती हुई अपना राष्ट्रीय क्षितिज तैयार कर चुकी है. स्वतंत्रता की लड़ाई में तो यह सम्पूर्ण देश की अस्मिता के साथ जुड़ चुकी थी और भाषा के तौर पर इसने नेतृत्व किया था. अब हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना विस्तार करना है. अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज को अपनी उपयोगिता के सूर्य से उद्भासित कर विश्व को चकाचौंध करना है जो न विदेशी भाषा का पल्लू पकड़ कर होगा और ना ही रोमन लिपि से. हाँ, हिन्दी बड़ी बहन की तरह प्रांतीय भाषाओं व अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने आँचल में सहेजउनके प्रति बड़ी सहोदरा जैसी स्नेह-सिक्त उदारमना हो, स्वयं को व अपनी जननी को गौरवान्वित करने की क्षमता अवश्य ही रखती है, इसमें कोई संदेह नहीं है ।
                                         स्नेह ठाकुर
                                         संपादक-प्रकाशक 'वसुधाहिन्दी साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका,  लिम्का बुक रिकॉर्ड होल्डर
                                         Sneh Thakore,  16 Revlis Crescent, Toronto, Ontario M1V 1E9, Canada
                                         Tel. 416-291-9534,  e-mailsneh.thakore@rogers.com,     Website:http://www.Vasudha1.webs.com

 


  

वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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प्रस्तुत कर्ता  : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
email: murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी

हैदराबाद

सीताराम बाग़ में ता. 19-6-2013

सीताराम बाग़ में ता. 19-6-2013 






प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
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मीडिया प्रभारी
हैदराबाद